एक शाम वासिफ़ फ़ारूक़ी के नाम महफ़िल का आयोजन

एक शाम वासिफ़ फ़ारूक़ी के नाम
क़मर अदबी सोसाइटी मुज़फ़्फ़रनगर की ओर से एक अदबी महफ़िल का आयोजन किया गया। "एक शाम वासिफ़ फ़ारूक़ी के नाम"।
काशानाए क़मर केवलपुरी पर यह महफ़िल सजी।लखनऊ से तशरीफ़ लाए मशहूर शायर वासिफ़ फ़ारूक़ी के लिए सजी यह महफ़िल देर तक चली।
कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉक्टर सदाक़त देवबन्दी ने की।संचालन अल्ताफ़ मशअल ने किया। वासिफ़ फ़ारूक़ी का सम्मान करते हुए उन्हें कई बार सुना गया।


वासिफ़ फ़ारूक़ी का कलाम-
दिल से निकली हुई मासूम सदा पहुंची है,
जिस जगह कुछ नहीं पहुंचा है दुआ पहुंची है।
अब तो राहों का तस्व्वुर भी अज़ीयत है मुझे,
अब तो पैरों की थकन ज़हन तक आ पहुंची है।
डॉक्टर सदाक़त देवबन्दी कहते हैं-
यहीं के हम भी हैं नज़रें मिला के बात करो,
सबूत चाहिए, आओ आके बात करो।
अब्दुल हक़ सहर कहते हैं-
अब देखना है कौन समेटेगा मेरे ग़म,
यूँ तो तमाम शहर तमाशाइयों में है।
शाहिद जिगर चरथावली ने पढ़ा-
तमाम दिन की थकन लेके घर को लौटा हूँ,
ज़रूरतों का कफ़न लेके घर को लौटा हूँ।
अरशद ज़िया ने पढ़ा-
निकली है धुन ये कौन सी गर्दिश की बीन से,
घबरा के सांप जाने लगे आस्तीन से।
मकसूद हसरत लक्की ने पढ़ा-
फूल जब रात की चादर में सिमट जाते हैं,
हम तेरे नाम की ख़ुशबू से लिपट जाते हैं।
सलीम अहमद सलीम ने पढ़ा-
ख़र्च होते हैं ख़ून के आँसू,
मुफ़्त मिलता नहीं है प्यार मियां।
नवेद अंजुम ने पढ़ा-
किसी पर एक हद तक तो नवाज़िश ठीक है लेकिन,
मुसलसल बारिशें छत के लिए आज़ार होती हैं।
अल्ताफ़ मशअल ने पढ़ा-
तकब्बुर है नहीं कुछ भी इबादत पर ख़ुदा मुझको,
जहन्नुम से बचाएगी फ़क़त तेरी रज़ा मुझको।
कलीम वफ़ा मुज़फ़्फ़रनगरी ने पढ़ा-
वफ़ा परस्ती का कैसा सिला दिया तुमने,
तमाम शहर को मक़तल बना दिया तुमने।
अदीलउर्रहमान अदील ने पढ़ा-
दामन तो अपना कोई भिगोता नहीं यूँ ही,
कोई सबब तो होता है रोता नहीं यूँ ही।
इस महफ़िल के संयोजक मकसूद हसरत लक्की ने सभी का आभार प्रकट किया।